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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

अमृत-कण

१. मनुष्यको निकम्मा नहीं रहना चाहिये। छः घंटा सोनेका छोड़कर बाकीका समय परमार्थमें बीते तब तो परमार्थमें बिताना चाहिये, अन्यथा काम करना चाहिये।

२. भोग, प्रमाद, आलस्य, पाप-इनमें समय नहीं बिताना चाहिये।

३. भोजन करनेसे सोनेतक सारे कर्म परमार्थके रूपमें बदल सकते हैं, यदि बुद्धिमानीसे बदलना चाहे तो। यह सिद्धान्त रखे कि संसारमें मेरा जीना भगवान्के लिये ही है, मैं खाना, पीना आदि कर्म भी भगवान्के लिये करता हूँ। भगवान्के लियेका तात्पर्य भगवान्की प्रसन्नताके लिये या भगवान्की आज्ञापालन करनेके लिये है।

४. भगवान्की आज्ञापालनके लिये खान-पान आदि है, शरीरके लिये नहीं। शरीरका नाश हो तो हो जाय, कुछ हर्ज नहीं है पर भगवान्की आज्ञा है, उसके लिये शरीरका निर्वाह करना है। भगवान्की आज्ञा भगवान्की प्रीतिकी प्राप्तिके लिये पालन करनी चाहिये।

५. इससे भी अच्छी बात यह है कि भगवान्की आज्ञाका पालन करना मनुष्यका कर्तव्य है। भगवान्की आज्ञाका पालन करना किसी हेतुके लिये नहीं अपितु आज्ञाका पालन करना मनुष्यकी मनुष्यता है, पालन न करना पशुता है, नीचता है।

६. भगवान्को याद ही नहीं रखते, उनकी आज्ञाका पालन भी नहीं करते, इससे बढ़कर अपनी नीचता क्या है।

७. दु:ख भोगनेपर बहुत हर्ष होना चाहिये कि यह ईश्वरकी तेरेपर पूर्ण दया है। जिससे अपनापन होता है उसे कड़ा दण्ड दिया जाता है। जिसे ईश्वर अपना लेते हैं, उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं।

८. ईश्वर हमें जितना अधिक कष्ट दें, उतना अधिक प्रसन्न होना चाहिये कि ईश्वरकी तेरेपर महान् दया है।

९. जिस चीजको हमने अपना समझ रखा है, उसे ईश्वरने अपना लिया, यह ईश्वरकी महान् दया है।

१०. प्रभुकी चीजको मैंने मेरी मान रखी थी, उसे अब भगवान्ने ले लिया, यह भगवान्की महान् दया है। ११. अपना धन, मकान ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगे यह सकामभाव है। प्रभुका रुपया प्रभुके काममें लगे यही भाव उत्तम है।

१२. जिस कामका कोई ग्राहक नहीं है, उस कामको स्वयं करे।

१३. महात्मा आ गये और कोई साधारण अतिथि आ गया। सबकी समान भावसे सेवा करे, उसी क्षण भगवान्की प्राप्ति हो जायगी।

१४. जो व्यवहार आप परमेश्वरके साथ प्रेमसे करते हैं, वही व्यवहार यदि मेहतरके साथ प्रेमसे कर सकें तो भगवान् तुरन्त मिल जायेंगे।

१५. आपत्तिकालमें मेहतरकी सेवा करना परमेश्वरकी सेवा करना है, कर्तव्य है। उसके बाद स्नान कर ली।

१६. भगवान्की आज्ञापालन करके हमें यह समझकर प्रसन्न होना चाहिये कि इतना समय भगवान्के काममें आ गया।

१७. जिसको जैसी चीजकी आवश्यकता हो, उसको देकर ऐसे ही प्रसन्न होना चाहिये जैसे भगवान्को देकर प्रसन्न होते हैं।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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